शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

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जय लोक मंगल

मेरे बारे में जाने (प्रेम किशोर पटाखा)

वर्ष 1943
दीपावली के दिन
अलीगढ में जन्म लिया
उस समय के हास्य सम्राट काका हाथरसी ने
बचपन पर किसी मंच पर नाम रखा दिया पटाखा
हास्य जगत में कर दिया धमाका
एक पत्र में लिखकर दे दिया आशीर्वाद
तुम हो पटाखा हम हैं काका
हास्य रस नें दाकें डाका
"दिन दूनी उन्नति करो बेटा प्रेम किशोर
इतनी ख्याति मिले तुम्हें होए विश्व में शोर"
बस वही शोर पकड़ लिया जोर
मंच पर होने लगी वन्स मोर
वर्ष 1963 से ही काव्य मंचों पर छा गए
कवि सम्मेलनों में आ गए
उस समय के दिग्गज मंच कार
नामी गिरामी सुपरस्टार
देने लगे प्यार
पदमश्री गोपाल प्रसाद व्यास, डा. ब्रजेन्द्र अवस्थी, श्री रमई काका,
श्री ओम प्रकाश आदित्य, डा. गोविन्द व्यास, श्री अल्हड बीकानेरी
श्री माणिक वर्मा, श्री शील चतुर्वेदी,
श्री प्रदीप चौबे, श्री जेमिनी हरियाणवी,
श्री हुल्लड़ मुरादाबादी
महफ़िल जमा दी
वर्ष 1968 में काव्य की पहली रचना छपी
"साली को सर्वेश्वर मानो"
इसकी प्रेरणा मिली श्री व्यास जी की पुस्तक "पत्नी को परमेश्वर मानो"
पुस्तक की भूमिका भी श्री व्यास जी के द्वारा ही रची गयी
आपकी कलम से उसमे कई बातें थी नईं
आपने लिखा- कुछ लोग था या थी पर विशवास करते हैं
पटाखा जी उनमे से हैं जो है पर विश्वास करते हैं
है तो ठीक नहीं तो वो मनवा कर रहेंगे
मैं अपनी खेती को देखकर मगन हूँ l
वे मगन हुए और हम अपनी लगन से साहित्य सृजन में जुट गए
जिस दिन अपोलो ने चाँद पर पहली जम्प ली
हमारी व्यंग्य की पहली फुलझड़ी लखनऊ से प्रकाशित
दैनिक नवजीवन में नए स्तम्भ में छपी बस
उसी दिन से हास्य व्यंग की फुलझड़ी लिखने का सिलसिला हो गया शुरू
इसके लिए भी पं. गोराल प्रशाद व्यास जी ही थे हमारे गुरु
इधर काव्य मंचों पर भी मिलने लगी दाद
वर्ष 1977 के आस पास हम आ गए गाजियाबाद,
गाजियाबाद आते ही दिल्ली में होने लगे धमाके
डायमंड पॉकेट बुक्स से पुस्तक छपी "पटाखे ही पटाखे"
हर तरफ छ गए हम, पटाखा हो गया बम
पुस्तक प्रकाशन में भी बजने लगी सरगम
अर्थात वर्ष १९८६ से अब तक पुस्तक दर पुस्तक
पेंसठ साल की उम्र में साठ से भी अधिक पुस्तकें
बुक स्टॉलों पर नज़र आने लगी
तबियत खिलखिलाने लगी l

सोमवार, 10 सितंबर 2012

जर्रूर पढ़ें किताब "केले का छिलका" से साभार
माँ के गर्भ से बेटी की  पुकार
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कहते हैं मारने वाले से बचाने वाला बलवान होता है
क्यूंकि बचाने वाला खुद भगवान् होता है
फिर मैं आपसे पूछता हूँ मुझे ये बताएं क्यूँ हो रही हैं गर्भ में
कन्या भ्रूण की हत्याएं ?
इस सवाल के जवाब में हमें रात भर नींद नहीं आई
करवटें बदलते हुए रात बिताई
भोर की मस्ती में पलकें अल्सायीं
झुकीं और नींद आई
क्या देखते हैं हम
गर्भ के सागर में गोते लगा रहे हैं
सामने एक भ्रूण में कन्या के दर्शन पा रहे हैं
कन्या
जो स्रष्टि का श्रंगार है
कन्या जो प्रकृति है
शीतल बयार है
 कन्या जो कभी सीता तो कभी दुर्गा का अवतार है
फिर हमें उसे मारने का क्या अधिकार है?
उसने मुझे देखा और मुस्कुराई
बोली- अरे कवी !
तुम यहाँ ?
मैंने कहा - हाँ, तुमने वो कहावत नहीं सुनी,
जहा न पहुंचे रवि वहाँ पहुंचे कवी.
और अब तो तुम भी
जल्दी ही प्रथ्वी पर उजागर हो जाओगी
नए संसार से जुड़ जाओगी
उसने मुझे बताया मैं उसी संसार में जाने के लिए
जप कर रही हूँ
और अपनी जननी के लिए
व्रत और ताप कर रही हूँ
जिसके गर्भ में पलता है स्रष्टि की रचना का महान बीज मंत्र
मैंने टोका
हाँ उसी बीज मंत्र को बाहर निकाल कर फेंक देता है
अदना सा एक मानवी यंत्र,
उस समय तुम्हारा भगवान् कहाँ सोता है
उसने मुझे बताया
मेरा भगवान् तो हर समय मेरी रक्षा करता है
मेरे गर्भ का कवच बनकर मेरी सुरक्षा करता है
हम भी उस परम प्रभु की संतान हैं
शक्ति वरदान हैं
धरती पर आती हैं
नया घर बसाती हैं
मेहंदी रचाती हैं
सपने सजाती हैं
तभी अचानक हो गया सपने का संहार
गर्भ के सागर में जेसे भूचाल आया

उसने झट उस कन्या को धर दबोचा
तब मुझे उसकी चीख सुनाई दी
जो उसके अंत:करण से आई थी
सुनो कवी!
तुम ये जानना चाहते हो
जिसको बनाने वाला स्वं भगवान् होता है
फिर उसका यहाँ क्यों बलिदान होता है
क्यूँ मेरे माता पिता जन्म से पहले ही
मुझे मार देते हैं
क्यूँ दहेज़ रुपी दानव से डरकर
मेरा संहार कर देते हैं
सुनो कवी-
जब ये संहार समय की तराजू पर तुलता है
तब धरती भूकम्पित होती है
लहरों का कहर टूटता है
ज्वालामुखी फूटता है
इसलिए कहती हूँ-
समय चक्र चलने दो
सर्जन को मचलने दो
गर्भ के मंदिर में
दीपशिखा जलने दो
"दिव्य आत्मा बेटियाँ करो नहीं संहार
लेने दो हर कोख से बेटी को अवतार
बेटी से ही स्रष्टि का होता है श्रृंगार
बहिन, बहू माँ बेटियाँ सजा रहीं परिवार "

रचनाकार - पं. प्रेम किशोर "पटाखा"

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